अपने सुखों का वितरण करने में इस दुनिया में सबसे अधिक नाम यदि किसी ने कमाया है, तो वह हैं महाभारतकालीन कर्ण। कर्ण ‘दानवीर’ के नाम से जाना जाता था। सभी कर्ण के दानी स्वभाव की बड़ी प्रशंसा करते थे। लेकिन कर्ण की इस प्रशंसा से अर्जुन हमेशा चिढ़ा करते थे।
एक बार जब भगवान श्री कृष्ण और अर्जुन कहीं जा रहे थे, तब बातचीत में अर्जुन ने कृष्ण को पूछा कि क्यों कर्ण को दानवीर कहा जाता है, उन्हें नहीं। जबकि हम भी तो बहुत दान करते हैं।
अर्जुन का दान
एक दिन कृष्ण ने कर्ण और अर्जुन के दान की परीक्षा लेने का निश्चय किया उन्होंने अपनी माया से एक सोने का पहाड़ बनाया और पहले अर्जुन से कहा-“सूरज डूबने से पहले उसे सारा पहाड़ दान कर देना है।”
अर्जुन ने तुरन्त पहाड़ काटकर उसे बांटना शुरू कर दिया। दो दिनों और दो रातों के लिए, अर्जुन ने सोने के पहाड़ को खोदा और गाँव में सोने का वितरण किया।
इस बीच कई ग्रामीण फिर से कतार में खड़े होकर अपनी बारी का इंतजार करने लगे। अर्जुन अब थक गया था लेकिन अपना अहंकार नहीं छोड़ रहा था।
अर्जुन सुबह से शाम तक बिना कुछ खाये-पिये, बिना रुके पहाड़ काटता रहा, पर शाम तक सिर्फ कुछ ही पहाड़ काट सका। पहाड़ पर कोई असर नहीं पड़ा। शाम को उसने अपनी हार मान ली।
कर्ण का दान
दूसरे दिन कृष्ण ने फिर वैसा ही पहाड़ बनाया और कर्ण से उसे बांटने को कहा। कर्ण को पहाड़ बांटने का काम सौंप कर श्रीकृष्ण और अर्जुन वापस लौट रहे थे। अभी उन्होंने आधा रास्ता भी तय नहीं किया था कि पीछे से तेजी से एक रथ आता दिखाई दिया। रथ कर्ण का था।
कर्ण को वापस आता देख अर्जुन को बड़ा आश्चर्य हुआ, क्योंकि वह पूरे दिन काम करके भी पूरा पहाड़ काटकर दान नहीं कर पाया था।
कर्ण ने पास आकर श्रीकृष्ण से कहा-“भगवन्! मैंने अपना काम पूरा कर दिया है।”
अर्जुन को बड़ा आश्चर्य हुआ, उसने कर्ण से पूछा कि यह कैसे संभव हुआ। तब कर्ण ने जवाब दिया-“मैंने आस-पास के सभी गांव वालों को बुलवाकर उनसे कहा कि जो जितना सोना चाहे, पहाड़ तोड़कर ले जाये। इतना कहना था कि सारे गांव वाले पहाड़ तोड़ने में जुट गये और थोड़ी ही देर में सारे पहाड़ के छोटे-छोटे टुकड़े हो गये।”
तब कृष्ण ने अर्जुन से कहा-“देखा पहाड़ तो तुम भी दान करना चाहते थे, पर तुम्हें यह नहीं सूझा।”
कृष्ण मुस्कुराए और अर्जुन से कहा कि तुम सोने से मोहित हो गए थे और तुम ग्रामीणों को उतना सोना दे रहे थे जितना तुमने सोचा था कि उन्हें जरूरत है।
लेकिन कर्ण ने इस तरह नहीं सोचा और दान देने के बाद कर्ण वहां से चला गया। वे नहीं चाहते थे कि कोई इस बात पर उनकी प्रशंसा करे, न ही उन्हें इस बात का बुरा लगा कि कोई उनके पीछे क्या बोलेगा।
यह एक ऐसे व्यक्ति का संकेत है जिसने आत्मज्ञान प्राप्त कर लिया है। एक दान के बदले में धन्यवाद या बधाई की उम्मीद करना एक उपहार देना नहीं है बल्कि यह सौदा होता है।
इसलिए, यदि हम किसी को कुछ दान या समर्थन देना चाहते हैं, तो हमें इसे बिना किसी उम्मीद या आशा के करना चाहिए ताकि यह हमारे अच्छे कर्म हों, हमारा अहंकार न हो।
कहानी से सीख -Moral of the Story
आप लोग कर्ण वाली सोच रखें, अर्जुन वाली नहीं। अर्जुन भले ही अपने युग का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर रहा हो, लेकिन क्या वह एकलव्य से बढ़कर धनुर्धर हो सकता है? क्या उसका यश और कीर्ति कर्ण जैसा हो सकती है, कदाचित नहीं। कर्ण ने भले ही अधर्म के पथ पर चलने वाले दुर्योधन का साथ दिया हो, लेकिन उसने अपने व्यक्तिगत मामलों में धर्म के दस नियमों का पालन किया था। इसीलिए तो आज श्रद्धा के साथ उसको याद किया जाता है।
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