ईश्वरचन्द्र विद्यासागर (Ishwar Chandra Vidyasagar) बंगाल पुनर्जागरण के महत्त्वपूर्ण स्तंभों में से एक थे, जो 1800 के दशक के शुरुआती दिनों में राजा राममोहन राय द्वारा शुरू किए गए सामाजिक सुधार आंदोलन को जारी रखने में कामयाब रहे थे।
ईश्वरचन्द्र एक प्रसिद्ध लेखक, बुद्धिजीवी और मानवता के कट्टर समर्थक थे।
ईश्वरचंद्र विद्यासागर का असली नाम ईश्वरचंद्र बंदोपाध्याय था। उस समय, महिलाओं का बाहर निकलना भी एक ‘पाप’ माना जाता था। उस समय, उन्होंने महिलाओं के लिए पढ़ाई लिखाई के लिए संघर्ष किया। उन्हें चारदीवारी से बाहर निकालने के लिए और उनके अधिकारों के लिए आंदोलन भी किया। विद्यासागर विधवा महिलाओं की दशा सुधारने के लिए संघर्षरत थे। उन्होंने विधवा पुनर्विवाह अधिनियम पारित किया और एक विधवा महिला से अपने बेटे की शादी भी की।
ईश्वरचंद्र संस्कृत के विद्वान थे। वे कलकत्ता के संस्कृत महाविद्यालय के प्राचार्य थे। आइये देखते हैं उनके जीवन से 2 प्रेरक प्रसंग.
प्रेरक प्रसंग #1 – स्वावलम्बन – ईश्वरचन्द्र विद्यासागर
महान समाज-सेवक और प्रसिद्ध विद्वान ईश्वरचन्द्र विद्यासागर से भला कौन परिचित नहीं है! उनके जीवन की यह एक घटना स्वावलम्बन से संबंध रखती है।
बंगाल के एक छोटे-से स्टेशन पर एक रेलगाड़ी आकर रुकी। गाडी में से एक आधुनिक नौजवान लड़का उतरा। लड़के के पास एक छोटा-सा संदूक था। स्टेशन पर उतरते ही लड़के ने कुली को आवाज लगानी शुरू कर दी।
वह एक छोटा स्टेशन था, जहाँ पर ज्यादा लोग नहीं उतरते थे, इसलिए वहाँ उस स्टेशन पर कुली नहीं थे स्टेशन पर कुली न देखकर लड़का परेशान हो गया। इतने में एक अधेड़ उम्र का आदमी धोती-कुर्ता पहने हुए लड़के के पास से गुजरा। लड़के ने उसे ही कुली समझा और उसे सामान उठाने के लिए कहा। धोती-कुर्ता पहने हुए आदमी ने भी चुपचाप सन्दूक उठाया और आधुनिक नौजवान के पीछे चल पड़ा।
घर पहुँचकर नौजवान ने कुली को पैसे देने चाहे, पर कुली ने पैसे लेने से साफ इन्कार कर दिया और नौजवान से कहा-“धन्यवाद! पैसों की मुझे जरूरत नहीं है, फिर भी अगर तुम देना चाहते हो, तो एक वचन दो कि आगे से तुम अपना सारा काम अपने हाथों ही करोगे। अपना काम अपने आप करने पर ही हम स्वावलम्बी बनेंगे और जिस देश का नौजवान स्वावलम्बी नहीं हो, वह देश कभी सुखी और समृद्धिशाली नहीं हो सकता।”
धोती-कुर्ता पहने यह व्यक्ति स्वयं उस समय के महान समाज-सेवक और प्रसिद्ध विद्वान ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ही थे।
प्रेरक प्रसंग #2 – एक पैसा – ईश्वरचन्द्र विद्यासागर
एक बार सारे बंगाल में भयंकर सूखा पड़ा। भूख से व्याकुल लोग भोजन की तलाश में भागे फिर रहे थे। गांव-के-गांव खाली हो गये थे। उन्हीं दिनों ईश्वर चन्द्र विद्यासागर घूम रहे थे घूमते हुए उनके पास एक गरीब बालक आया और एक पैसा मांगने लगा।
ईश्वरचन्द्र ने देखा, बच्चे का मुंह सूखा हुआ है, मानो उसने कई दिनों से खाना ही नहीं खाया। ईश्वरचन्द्र को बच्चे पर दया आ गयी। उन्होंने बच्चे से पूछा-“अगर मैं तुम्हें एक पैसे के बदले दो पैसे दूं तो तुम क्या करोगे?’
बच्चे ने समझा वह हँसी कर रहे हैं-“महाशय मैं बड़ी परेशानी में हूँ, अगर आप मुझे चार पैसे दें तो उनमें से दो पैसे की चीजें लुंगा और दो पैसे मां को दूंगा।”
ईश्वरचन्द्र ने पूछा, “अगर मैं तुम्हें चार पैसों की जगह चार आने दूँ तो?”
बच्चे ने जवाब दिया-“दो आने से खाने की चीजें खरीदूंगा, जिससे मेरा और मां का दो दिन का खाना आराम से चल जायेगा। बाकी दो आने से फल खरीदकर बेचूंगा और पैसे कमाएंगे। “
ईश्वरचन्द्र बच्चे की बातों से बहुत खुश हुए और उन्होंने उसे एक रुपया दिया।
बच्चा रुपया लेकर चला गया। चार-पांच साल बाद ईश्वरचन्द्र फिर उसी जगह आये। एक दिन जब वह घूमने जा रहे थे, एक युवक उनके पास आया और प्रणाम करके बोला-“क्या आप थोड़ी देर के लिए मेरी दूकान पर चलेंगे?”
ईश्वरचन्द्र हैरान थे। उन्होंने उस युवक से कहा-“भाई, मैं तो तुम्हें नहीं जानता, तुम कौन हो?” उस युवक ने याद दिलाया कि चार-पांच साल पहले उन्हीं के दिये हुए एक रुपये से उसने काम शुरू करके अब यह दुकान खोल ली है।
वह लड़का चाहता तो विद्यासागर के पैसे से कई दिन आराम से रोटी खा सकता था, लेकिन उसने जीवन को आशावान बनाया और दूर का निर्णय लेकर अपना काम शुरू किया।
यही तो अंतर है सामान्य आदमियों में और कुछ अलग कर दिखाने वालों में। दो सीमाएं हैं, दो छोर हैं, जिनके बीच में काफी लंबी दूरी है, एक भूतकाल और दूसरा भविष्य।
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